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Friday, April 5, 2019

सुलगते सवाल | व्यंग | shayari on real life

सुलगते सवाल  (व्यंग )

(shayari on life) 
आखिर आतंक और उग्रवाद 
ढोने की वजह क्या थी। 
आदमी से आदमी को विश्वास 
खोने की वजह क्या थी। 
रामराज सर्व संपन्न था। 
हर अपराध की सजा एक थी। 
फिर वहां के मानव में राक्षस 
होने की वजह क्या थी। 
जहाँ  हंस चुगते थे दाना 
कौआ मोती कहते थे। 
वहां के इन्सान को मांस 
खाने की वजह क्या थी। 


Book:- हस्तक्षेप 
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Tuesday, January 29, 2019

बिजली का बिल | shayari on politics | life shayari

बिजली का बिल

गांव के हर खेत में हे कुंआ। 
फसलों ने मगर पानी नहीं छुआ। 

बंद पड़े हैं मोटर पम्प फिर भी 
बिल बिजली का हज़ारों में हुआ। 

बन कर कर्जदार साहूकारों का 
रो रहा बैठ कर खेत में घनसुआ। 

बिजली के रूबरू खड़े हो कर 
लोग मांगते हैं रौशनी की दुआ। 

सर पटक पटक कर किसान 
बिजली के दफ्तर में कुर्बान हुआ।

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Wednesday, January 16, 2019

kisan

किसान

हम तो किसान के बेटे हैं, कृषि को प्रधान मानते हैं|
परंतु धर्म प्रेमि श्रद्धालुओं को भी महान मानते हैं | |
घर खेत खलिहानों को मिले न मिले बिजली लेकिन,
रौशनी से चमचमाती झांकियों को हम भगवान मानते हैं |

उत्पादन से कटौती कर,हज़ारो मेगावाट विद्दुत खपाई जाती है |
यहाँ बिजली के अलावा, करोड़ोकी लागत लगाई जाती है | |
घर की बहू बेटीयां तो चाहे जल जाएं जिन्दा यहाँ पर,
शहर के चौराहे पर मिट्टी की देवियां सजाई जाती हैं |



आजकल दूरदर्शन और सरकार में तालमेल हो जाते हैं|
इनके झूटे वायदे और  विज्ञापन बेमिसाल हो जाते हैं|
इसिलोये विज्ञापन कम्पनि और मंत्री मालामाल ,
हर मेहनतकश मजदुर यहाँ कंगाल हो जाते हैं |


अदालत

परंतु अदालत भी इन्हें ऐसे माफ़ कर देती है,
जैसे टीवी घटिया सर्फ़ में कपडे साफ कर देती है |
न्यायालय में बैठी हैं मूर्तियां जो न्याय की,
वहाँ पर वो भी ले देके ही इन्साफ कर देती हैं |

Wednesday, January 9, 2019

सत्ता

  ग़ज़ल

सत्ता के पिंजरे में बैठा है सुआ | 
कुतरने की अदा पे ऐंठा है मुआ | | 

कई मर गए यहाँ तड़पके भूक से 
गर्रा के फैंक रहे हैं वो मॉल पुआ |

सत्ता रूपी सुंदरी को पाने के लिए,
ज़िंदगियों से खेल रहे हैं वो जुआ | | 

वो महलों में रहने वाले क्या जानें 
गरीबों के जलते दिलों से उठता नहीं धुंआ | 

 
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Thursday, October 26, 2017

muktak

मुक्तक

कल बदलेगा, आज बदलेगा | 
राज बदलेगा, काज बदलेगा || 
हमने उठाई  है अब कलम ,
निश्चित ही समाज बदलेगा | 
भूक प्यास की अति नहीं याद | 
ग़रीबी का मालूम नहीं स्वाद || 
वैभव भरी स्वार्थ की स्याही | 
झुग्गियों पे लिख रहीं संवाद || 
शिक्षा , चिकित्सा का हो रहा निजीकरण | 
देशी कम्पनियों का हो रहा विदेशीकरण || 
डर इस बात का सता रहा हे दोस्तों ,
फिरसे ना हो जाये कहीं सत्ता का अपहरण ||
वो मर्द -मर्द नहीं होता | 
जिसे कोई दर्द नहीं होता || 
जिसे पीड़ाएं ना दिखाई दें औरों की,
क्या वो कमज़र्फ नहीं होता || 

 हस्तक्षेप (मुक्तक संग्रह), प्रथम संस्करण २०११ 
एच. एन. सोलंकी( निर्मोही  )  


इसी संकलन के और मुक्तक पढ़ने के लिए लाइक, कमेंट और शेयर ज़रूर करें धन्यवाद ||

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